✍️ रिपोर्टर: डी० पी० रावत
🔴 नई दिल्ली:
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत दर्ज मामलों में अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) को लेकर ऐतिहासिक फैसला सुनाया। अदालत ने साफ कहा कि इस विशेष कानून के प्रावधानों में आरोपी को सीआरपीसी की धारा 438 (अग्रिम जमानत) का लाभ नहीं मिल सकता, सिवाय उन परिस्थितियों के जहां प्रथम दृष्टया मामला ही न बनता हो।
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) बीआर गवई की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने यह फैसला सुनाते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश को पलट दिया।
🏛️ अदालत ने क्या कहा?
पीठ ने अपने आदेश में कहा—
SC/ST एक्ट की धारा 18 स्पष्ट रूप से अग्रिम जमानत पर रोक लगाती है।
यह कानून दलितों और आदिवासियों को सामाजिक भेदभाव और हिंसा से सुरक्षा देने के लिए विशेष रूप से बनाया गया था।
यदि किसी मामले में पीड़ित की शिकायत प्रथम दृष्टया सही है, तो अदालतें अग्रिम जमानत की अर्जी पर विचार न करें।
केवल उन मामलों में राहत दी जा सकती है, जहाँ प्रथम दृष्टया केस झूठा या बदनीयती से दर्ज किया गया प्रतीत हो।
📌 पृष्ठभूमि: बॉम्बे हाईकोर्ट का आदेश
दरअसल, बॉम्बे हाईकोर्ट ने हाल ही में अपने आदेश में कहा था कि SC/ST एक्ट के मामलों में भी विशेष परिस्थितियों में अग्रिम जमानत दी जा सकती है। इस फैसले को चुनौती देते हुए मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।
याचिकाकर्ताओं ने दलील दी थी कि एक्ट की धारा 18 और 18A पहले से ही अग्रिम जमानत को रोकती हैं, ऐसे में हाईकोर्ट का आदेश कानून के खिलाफ है।
📖 SC/ST एक्ट क्या है?
पूरा नाम: अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989।
उद्देश्य: दलितों और आदिवासियों पर हो रहे अत्याचार, भेदभाव और शोषण को रोकना।
मुख्य प्रावधान:
गंभीर अपराधों में तत्काल गिरफ्तारी और सख्त कार्रवाई।
अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) का प्रावधान नहीं।
पीड़ितों को तत्काल राहत और मुआवजा।
साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में अग्रिम जमानत को लेकर कुछ नरमी दिखाई थी, लेकिन देशभर में विरोध के बाद केंद्र सरकार ने संसद में संशोधन कर धारा 18A जोड़ी और अग्रिम जमानत को लगभग असंभव बना दिया।
⚖️ कोर्ट का तर्क
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि:
दलित और आदिवासी समाज को अब भी सामाजिक अन्याय का सामना करना पड़ता है।
इस कानून का उद्देश्य है— पीड़ितों को सुरक्षा देना, न कि आरोपियों को राहत देना।
यदि अग्रिम जमानत के रास्ते खोले जाएंगे, तो इस कानून का मूल उद्देश्य कमजोर पड़ जाएगा।
हां, यदि कोई शिकायत पूरी तरह झूठी या दुर्भावनापूर्ण हो, तो आरोपी को न्यायालय राहत दे सकता है।
👥 विशेषज्ञों की राय
वरिष्ठ अधिवक्ता आर.के. शर्मा का कहना है:
“यह फैसला दलितों और आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा करेगा। अक्सर आरोपी प्रभावशाली होते हैं और अग्रिम जमानत पाकर सबूतों को नष्ट कर देते हैं। अब ऐसा करना मुश्किल होगा।”
वहीं, आपराधिक कानून विशेषज्ञ अंजलि मेहरा कहती हैं:
“कई बार इस एक्ट का दुरुपयोग भी हुआ है। अदालत ने उसी संतुलन की कोशिश की है कि अगर प्रथम दृष्टया मामला झूठा हो तो आरोपी को राहत मिले, लेकिन जहां मामला सही है वहां सख्ती बरती जाए।”
🚨 समाज पर प्रभाव
दलित और आदिवासी समुदाय को राहत: अब उन्हें यह भरोसा रहेगा कि शिकायत दर्ज करने के बाद आरोपी आसानी से अग्रिम जमानत नहीं पाएगा।
पुलिस और प्रशासन की जिम्मेदारी बढ़ी: शिकायत दर्ज करने के बाद त्वरित कार्रवाई करनी होगी।
फर्जी मामलों पर अंकुश: अदालत ने स्पष्ट कर दिया है कि अगर केस झूठा है, तो आरोपी को राहत मिल सकती है।
कानूनी बहस जारी रहेगी: दुरुपयोग और सुरक्षा—दोनों पहलुओं पर बहस आगे भी होती रहेगी।
📊 आँकड़ों से समझें
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट बताती है कि हर साल 50,000 से ज्यादा मामले SC/ST एक्ट के तहत दर्ज होते हैं।
इनमें से 20–25% मामलों में आरोपियों की गिरफ्तारी होती है, जबकि कई मामले लंबित रहते हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि कानून की कठोरता के बावजूद पीड़ितों को न्याय पाने में लंबा समय लग जाता है।
🔍 निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला साफ करता है कि SC/ST एक्ट के मामलों में अग्रिम जमानत पाना लगभग नामुमकिन है। यह फैसला एक तरफ पीड़ित समुदाय को मजबूती देता है, तो दूसरी ओर झूठे मामलों से बचाव का रास्ता भी खुला रखता है।
कुल मिलाकर, अदालत ने यह संदेश दिया है कि “दलित और आदिवासी समाज की सुरक्षा सर्वोपरि है, और कानून का उद्देश्य केवल कागजों में नहीं, बल्कि जमीनी हकीकत में दिखना चाहिए।”
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