✍️ डी० पी० रावत, प्रधान सम्पादक – अखण्ड भारत दर्पण (ABD) न्यूज़
शिक्षक दिवस केवल एक औपचारिक पर्व नहीं है, यह उस परंपरा की याद दिलाता है जिसने भारतीय समाज और संस्कृति की नींव रखी। हर 5 सितम्बर को हम डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती पर शिक्षा और शिक्षक की महत्ता को याद करते हैं। लेकिन इस अवसर पर केवल बधाइयों और कार्यक्रमों तक सीमित रह जाना पर्याप्त नहीं, बल्कि यह जरूरी है कि हम भूत, वर्तमान और भविष्य के परिप्रेक्ष्य में शिक्षक दिवस के बदलते स्वरूप और उसकी चुनौतियों का विश्लेषण करें।
भूतकाल : आदर्श और आस्था का युग
भारतीय संस्कृति में गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान दिया गया। “गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वरः” का मंत्र केवल धार्मिक श्लोक नहीं बल्कि जीवन का सत्य था।
प्राचीन भारत में शिक्षा गुरुकुल प्रणाली पर आधारित थी, जहाँ गुरु और शिष्य एक परिवार की तरह रहते थे।
गुरु केवल ज्ञान ही नहीं देते थे, बल्कि जीवन-मूल्य, अनुशासन और नैतिकता भी सिखाते थे।
समाज में शिक्षक का स्थान निर्विवाद और सर्वोच्च था। गाँव का "गुरुजी" समाज का मार्गदर्शक माना जाता था।
शिक्षक दिवस तब एक औपचारिक उत्सव नहीं, बल्कि शिष्यों की कृतज्ञता और समाज की श्रद्धा का वास्तविक प्रतीक था।
वर्तमान : चुनौतियाँ और अवसर
आज के दौर में शिक्षा का स्वरूप बदल चुका है। डिजिटल क्रांति और तकनीकी प्रगति ने शिक्षा की पहुँच तो बढ़ाई है, लेकिन शिक्षक और छात्र के बीच भावनात्मक रिश्ता कमजोर पड़ा है। कोचिंग संस्कृति, प्रतिस्पर्धा और अंकों की होड़ ने शिक्षा को "कैरियर निर्माण का साधन" भर बना दिया है। शिक्षक दिवस अब अधिकांश स्थानों पर औपचारिक समारोहों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और सम्मान पत्रों तक सीमित हो गया है।शिक्षकों की भूमिका पहले जैसी सामाजिक नेतृत्व की नहीं रह पाई। उन्हें प्रशासनिक बोझ और अपेक्षाओं के बीच दबाया गया है। फिर भी, आज भी असंख्य शिक्षक हैं जो अपने विद्यार्थियों के जीवन को सही दिशा दे रहे हैं। कई जगहों पर शिक्षक न केवल शिक्षा दे रहे हैं, बल्कि सामाजिक बदलाव और सकारात्मक सोच की मिसाल भी पेश कर रहे हैं।
भविष्य : नई दिशा और उम्मीदें
भविष्य का भारत कैसा होगा, यह आज के शिक्षक और शिक्षा प्रणाली पर निर्भर करेगा।
नई शिक्षा नीति (NEP 2020) शिक्षक को फिर से केंद्र में लाने का प्रयास है, जिससे शिक्षा केवल किताबों और परीक्षाओं तक सीमित न रहे, बल्कि कौशल, शोध और जीवन मूल्यों पर आधारित हो।भविष्य के शिक्षक को केवल पढ़ाने वाला नहीं, बल्कि “मेंटॉर” और “लाइफ कोच” की भूमिका निभानी होगी।आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और डिजिटल माध्यमों के युग में भी मानवीय संवेदनाएं और गुरु-शिष्य का संबंध अनिवार्य रहेगा।यदि शिक्षक को उचित सम्मान, प्रशिक्षण और स्वतंत्रता मिले, तो वे राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को और मजबूत कर सकते हैं।
निष्कर्ष
भूतकाल ने हमें गुरु-शिष्य परंपरा की अमूल्य धरोहर दी। वर्तमान ने चुनौतियों और औपचारिकताओं के बीच उस धरोहर को कमजोर किया। लेकिन भविष्य हमारे हाथों में है—यदि हम शिक्षकों को वास्तविक सम्मान दें, उन्हें शिक्षा के केंद्र में रखें और गुरु-शिष्य के रिश्ते को आत्मीयता के साथ पुनर्जीवित करें, तो शिक्षक दिवस फिर से अपने सही मायने में सार्थक बन सकता है।
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