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“3 महीने से दूध पालकों को नहीं मिला मेहनत का दाम, अब जवाब दें सीएम या मिल्कफेड चेयरमैन?”

 

ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमराई, किसानों ने कहा — अब हद हो गई, सरकार बताए हमारा कसूर क्या है?

जीतू चौहान, उपाध्यक्ष भाजयुमो मंडल आनी

 डी०पी०रावत ।

अखण्ड भारत दर्पण (ABD) न्यूज

आनी/शिमला।


हिमाचल प्रदेश में दुग्ध उत्पादकों की स्थिति लगातार बदतर होती जा रही है। पिछले तीन महीनों से दूध पालकों को उनका मेहनताना नहीं मिला है। दूध उत्पादन से अपनी आजीविका चलाने वाले हजारों परिवार इस समय गहरे आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं। चारे, दवाइयों और पशु देखभाल की लागत जहां रोज़ बढ़ रही है, वहीं उनकी आमदनी पूरी तरह से थम चुकी है।



गांवों के किसान अब सवाल पूछ रहे हैं — “क्या हमारी मेहनत का मोल अब सरकार भूल गई है?”

मिल्कफेड से जुड़े पालक बताते हैं कि हर महीने नियमित रूप से दूध सप्लाई करने के बावजूद पिछले तीन महीनों से भुगतान नहीं आया है। नतीजा ये है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ कही जाने वाली डेयरी सेक्टर की हालत डगमगाने लगी है।

दूध बेचा, पैसा नहीं मिला — अब पशु पालना भी मुश्किल”

कुल्लू, मंडी, सिरमौर और शिमला ज़िलों में बड़ी संख्या में किसान मिल्कफेड से जुड़े हैं। पर अब हालात यह हैं कि कई परिवारों ने दूध सप्लाई बंद करने का मन बना लिया है।

आनी क्षेत्र के एक दुग्ध पालक रमेश ठाकुर बताते हैं —

 “हम हर सुबह 15 लीटर दूध बेचते हैं। पर तीन महीने से एक रुपया भी नहीं मिला। अब चारे का पैसा भी उधार लेना पड़ रहा है। 

सरकार हमारी हालत देखे — वरना हमें पशु बेचने पड़ेंगे।”

गांवों में महिलाएं जो घर की आजीविका संभालती थीं, अब परेशान हैं। पशु चारे की कीमतें आसमान छू रही हैं। एक बोरी चारा अब 1800 रुपये से ऊपर पहुंच चुका है, जबकि दवा और टीकाकरण का खर्च अलग।

तीन महीने से अटके करोड़ों रुपए, किसान बेबस

मिल्कफेड के माध्यम से राज्यभर में हर दिन लाखों लीटर दूध खरीदा जाता है। लेकिन बीते तीन महीनों में इस भुगतान का हिसाब कहीं अटका पड़ा है। अनुमान है कि प्रदेश के किसानों के करीब 35 से 40 करोड़ रुपए का बकाया भुगतान अब तक नहीं हुआ है।

यह पैसा न केवल किसानों के परिवारों के लिए जरूरी था, बल्कि पूरे ग्रामीण बाजार की गति इसी पर निर्भर करती है। दुकानदारों से लेकर पशु आहार विक्रेताओं तक सब पर इसका असर पड़ा है।

सरकार और मिल्कफेड में कौन जिम्मेदार?

प्रदेश में सवाल यह उठ रहा है कि आखिर किसानों के बकाया भुगतान में देरी क्यों हो रही है?

क्या यह प्रशासनिक लापरवाही है या वित्तीय कुप्रबंधन?

किसानों का कहना है कि जब भी वे मिल्कफेड के स्थानीय अधिकारियों से संपर्क करते हैं, उन्हें यही जवाब मिलता है — “ऊपर से फंड नहीं आया।”

लेकिन यह ‘ऊपर’ कौन है, इसका जवाब कोई नहीं देता।

अब सीधा सवाल मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू और मिल्कफेड चेयरमैन से किया जा रहा है —

“जनता को बताएँ कि गरीब किसानों के पैसे तीन महीने से क्यों रोके गए हैं? क्या यही किसानों के सम्मान का नया तरीका है?”

 “योजनाएं बनती हैं, पर ज़मीन पर असर नहीं”

भाजयुमो मंडल आनी के उपाध्यक्ष जीतू चौहान ने इस मुद्दे पर तीखी प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने कहा कि सरकार किसानों के नाम पर बड़ी-बड़ी घोषणाएं तो करती है, पर ज़मीन पर हकीकत कुछ और ही है।

“हिमाचल जैसे पहाड़ी प्रदेश में दुग्ध उत्पादन किसानों की रीढ़ है। तीन महीने तक भुगतान रोके रखना केवल आर्थिक नहीं, बल्कि नैतिक अन्याय है। सरकार को तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए और किसानों को उनका हक देना चाहिए।”

उन्होंने यह भी कहा कि यदि जल्द भुगतान नहीं किया गया, तो किसान विरोध के लिए मजबूर होंगे।

 ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर गहरा असर

दूध पालन से जुड़ा वर्ग अधिकांशतः गरीब और मध्यमवर्गीय है। ये वही किसान हैं जो खेती, पशुपालन और श्रम पर निर्भर हैं। जब इन्हें भुगतान नहीं मिलता, तो पूरा ग्रामीण तंत्र प्रभावित होता है।

गांवों में छोटे दुकानदारों की बिक्री घट रही है, क्योंकि किसान अब उधार नहीं चुका पा रहे। पशु आहार आपूर्तिकर्ता भी परेशान हैं।

एक व्यापारी ने बताया —

“पहले हर 10 दिन में दूध पालक भुगतान के पैसे से उधारी चुकाते थे। अब तीन महीने से कुछ नहीं मिला, तो हमने भी उधार देना बंद कर दिया है।”

यह संकट केवल किसानों का नहीं, बल्कि पूरे ग्रामीण समाज का बन चुका है।

राजनीतिक मौन पर सवाल

यह मामला अब राजनीतिक रंग भी पकड़ रहा है। विपक्ष सरकार से जवाब मांग रहा है कि जब बिजली सब्सिडी, मुफ्त योजनाएं और राजनीतिक विज्ञापनों पर करोड़ों खर्च किए जा रहे हैं, तो किसानों के भुगतान के लिए पैसा क्यों नहीं है?

वहीं सत्ता पक्ष की ओर से अभी तक कोई स्पष्ट बयान सामने नहीं आया है। न मिल्कफेड के चेयरमैन ने कोई स्पष्टीकरण दिया, न ही पशुपालन विभाग की ओर से कोई ठोस जवाब मिला।

जनता अब यही सवाल कर रही है —

“क्या सरकार किसानों की मेहनत को केवल चुनावी भाषणों में याद करती है? या वास्तव में कुछ करने की नीयत भी रखती है?”

 क्या कहता है कानून और नीति

दुग्ध उत्पादन से जुड़ी सरकारी नीतियों के अनुसार, दूध का भुगतान 10 से 15 दिनों के भीतर किया जाना चाहिए।

लेकिन हिमाचल में लगातार तीन महीने की देरी ने इन नीतियों की साख पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

किसानों का कहना है कि अगर सरकार खुद अपने बनाए नियमों का पालन नहीं कर रही, तो आम नागरिकों से अनुशासन की उम्मीद कैसे कर सकती है?

आगे क्या उम्मीदें हैं

किसानों को अब भी उम्मीद है कि सरकार इस गंभीर स्थिति को समझेगी और जल्द बकाया राशि जारी करेगी।

पशुपालन विभाग के सूत्रों का कहना है कि वित्त विभाग से जल्द फंड जारी होने की प्रक्रिया चल रही है। लेकिन जमीन पर राहत अभी तक नहीं पहुंची है।

जब तक किसानों के खाते में पैसा नहीं आता, तब तक भरोसा लौटना मुश्किल है।

 किसानों की अपील — हमें सिर्फ हमारा हक चाहिए

किसानों का कहना है कि वे कोई दान नहीं मांग रहे, केवल अपने मेहनत के पैसे की मांग कर रहे हैं।

एक किसान ने भावुक होकर कहा —

“हम हर सुबह गाय-दूध की सेवा करते हैं, ठंड-गर्मी में मेहनत करते हैं। पर जब महीनेभर की कमाई भी नहीं मिलती, तो दिल टूट जाता है।”

 निष्कर्ष

दूध पालन केवल एक व्यवसाय नहीं, बल्कि हिमाचल की जीवनशैली और परंपरा से जुड़ा है।

इस क्षेत्र की अनदेखी न सिर्फ किसानों के विश्वास को तोड़ेगी, बल्कि राज्य की अर्थव्यवस्था पर भी दीर्घकालिक असर डालेगी।

अब गेंद सरकार के पाले में है —

या तो किसानों का हक लौटाएं,

या फिर जनता को जवाब दें कि आखिर दूध पालकों के पैसे तीन महीने से क्यों रोके गए हैं?

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