डी० पी० रावत
आनी, 13 अक्तूबर।
हिमाचल प्रदेश में शिक्षा विभाग की कार्यप्रणाली पर लगातार सवाल उठते रहे हैं, लेकिन जिला कुल्लू के आनी शिक्षा खण्ड की स्थिति इन सबमें सबसे चौंकाने वाली है। यहां शिक्षकों की तैनाती में राजनीति और सिफारिश का असर इतना गहरा है कि वर्षों से कई अध्यापक एक ही स्कूल या आसपास के इलाकों में टिके हुए हैं।
जहां विद्यार्थियों की संख्या गिनती भर है, वहां दो से तीन शिक्षक तैनात हैं। दूसरी ओर, जिन स्कूलों में बच्चों की संख्या अच्छी-खासी है, वहां पूरा स्कूल एकमात्र शिक्षक के सहारे चल रहा है। यह असंतुलन न सिर्फ शिक्षा की गुणवत्ता पर सवाल खड़े करता है बल्कि बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ भी है।
बरसों से एक ही जगह जमे हैं “पैठ वाले” शिक्षक
आनी शिक्षा खण्ड में कई ऐसे शिक्षक हैं जो पूरे करियर में कभी भी दुर्गम या दूरस्थ क्षेत्रों में नहीं गए। कुछ की पूरी सेवा आनी कस्बे के तीन–चार किलोमीटर के दायरे में ही बीत गई। ये शिक्षक हर तबादला सत्र में अपनी सुविधा के अनुसार पोस्टिंग बदलवा लेते हैं — और यह सब उनकी राजनीतिक पैठ के बल पर संभव होता है।
वहीं, कई ईमानदार और बिना राजनीतिक सिफारिश वाले शिक्षक बरसों से कठिन इलाकों में तैनात हैं। परिवार और स्वास्थ्य की परवाह किए बिना वे अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं, मगर उन्हें कस्बे या मुख्यालय के नज़दीक आने का मौका कभी नहीं मिलता।
असमान तैनाती से बिगड़ रही शिक्षा व्यवस्था
यह असंतुलन आनी की सरकारी शिक्षा व्यवस्था की जड़ें हिला चुका है। कुछ स्कूलों में बच्चों से ज़्यादा शिक्षक हैं, तो कहीं शिक्षक से ज़्यादा बच्चे।
उदाहरण के तौर पर—
राजकीय प्राथमिक पाठशाला खौढ़ा: 3 विद्यार्थी, 2 शिक्षक
राजकीय प्राथमिक विद्यालय हिम्बरी: 19 विद्यार्थी, 1 शिक्षक
राजकीय प्राथमिक पाठशाला घुलट: 17 विद्यार्थी, 2 शिक्षक
राजकीय प्राथमिक पाठशाला लामीसेरी: 7 विद्यार्थी, 2 शिक्षक
राजकीय प्राथमिक विद्यालय कोटासेरी: 7 विद्यार्थी, 2 शिक्षक
राजकीय प्राथमिक पाठशाला रामोही: 6 विद्यार्थी, 2 शिक्षक
राजकीय प्राथमिक विद्यालय कराणा: 10 विद्यार्थी, 2 शिक्षक
राजकीय प्राथमिक पाठशाला शिली जांजा: 1 विद्यार्थी, 1 शिक्षक
राजकीय प्राथमिक पाठशाला बठलोण: 2 विद्यार्थी, 1 शिक्षक
राजकीय प्राथमिक पाठशाला रैहची: 14 विद्यार्थी, 2 शिक्षक
इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि शिक्षकों की तैनाती में कोई संतुलन नहीं है। जहां दर्जनों बच्चे हैं, वहां एक ही शिक्षक, और जहां मुट्ठीभर छात्र हैं, वहां दो-दो अध्यापक।
विद्यार्थियों की पढ़ाई पर गहरा असर
ऐसे स्कूलों में जहां केवल एक ही शिक्षक है, वहां पूरे सत्र की पढ़ाई प्रभावित हो रही है। एक ही शिक्षक को गणित, हिंदी, अंग्रेजी, ईवीएस, संस्कृत—सभी विषय पढ़ाने पड़ते हैं। छुट्टी पर जाने पर पूरा स्कूल ठप हो जाता है।
एक अभिभावक ने गुस्से में कहा—
> “हमारे गांव के स्कूल में 19 बच्चे हैं लेकिन सिर्फ एक ही मास्टर। जब वे बीमार पड़ते हैं या ट्रेनिंग पर जाते हैं तो बच्चों को घर भेज दिया जाता है। बच्चों की पढ़ाई तो भगवान भरोसे है।”
वहीं, कस्बे के करीब के कुछ स्कूलों में 10 से 15 बच्चों पर तीन अध्यापक हैं। ग्रामीणों का कहना है कि यह शिक्षा नहीं बल्कि “सुविधा पर आधारित पदस्थापन” है।
तबादला नीति सिर्फ कागज़ों में पारदर्शी
सरकार बार-बार "पारदर्शी तबादला नीति" की बात करती है, लेकिन आनी के हालात उस दावे की पोल खोलते हैं।
राजनीतिक रसूख वाले शिक्षक हमेशा आरामदायक स्कूलों में रहते हैं।
बिना सिफारिश वाले शिक्षकों को दुर्गम इलाकों में फंसा दिया जाता है।
तबादला आदेश बनने से पहले ही कुछ लोगों को पता होता है कि उन्हें कहां भेजा जा रहा है।
स्थानीय लोगों का आरोप है कि यह सब नेताओं और विभागीय अधिकारियों की मिलीभगत के बिना संभव नहीं है।
शिक्षा विभाग की चुप्पी और दिखावटी समीक्षा
ग्रामीण और पंचायत प्रतिनिधि कई बार इस विषय को ब्लॉक और जिला शिक्षा अधिकारियों तक पहुंचा चुके हैं। पर हर बार केवल समीक्षा बैठकें और औपचारिक निरीक्षण कर मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
एक बुजुर्ग ग्रामीण ने तंज कसा—
> “सरकारें बदलती हैं, अफसर बदलते हैं, लेकिन कुछ मास्टर नहीं बदलते। वो उसी स्कूल में टिके रहते हैं जैसे वह उनकी निजी दुकान हो।”
ईमानदार शिक्षक बने व्यवस्था के शिकार
जो शिक्षक अपनी नौकरी ईमानदारी से कर रहे हैं, वे इस राजनीति के सबसे बड़े शिकार हैं। बरसों से कठिन और दुर्गम स्कूलों में पढ़ा रहे ऐसे शिक्षक कहते हैं कि अगर विभाग ने निष्पक्ष नीति अपनाई होती, तो वे भी अपने परिवार के पास रहकर सेवा दे सकते थे।
एक शिक्षक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया—
> “मैंने 18 साल की नौकरी में एक बार ही आनी से 15 किलोमीटर के दायरे में पोस्टिंग पाई। बाकी का करियर दुर्गम इलाकों में बीता। जबकि मेरे कई साथी आनी कस्बे से कभी बाहर ही नहीं गए।”
बच्चों का भविष्य खतरे में
इस असंतुलन की सबसे बड़ी कीमत बच्चे चुका रहे हैं।
जिन स्कूलों में अध्यापक कम हैं, वहां शिक्षा की गुणवत्ता बेहद खराब है।
बच्चों को विषयवार शिक्षण नहीं मिल पा रहा।
प्रतियोगी परीक्षाओं और उच्च शिक्षा की तैयारी में ग्रामीण बच्चे पिछड़ रहे हैं।
और अभिभावक, मजबूरी में, प्राइवेट स्कूलों का रुख कर रहे हैं।
गरीब परिवारों पर निजी स्कूलों की फीस का बोझ बढ़ रहा है। ग्रामीणों का कहना है कि अगर यही हाल रहा तो सरकारी स्कूलों से भरोसा पूरी तरह उठ जाएगा।
शिक्षा विभाग का जवाब — "सब नीति अनुसार"
जब विभागीय अधिकारियों से इस असमानता पर सवाल पूछा गया तो जवाब मिला कि “सभी तैनातियां तबादला नीति के अनुसार की जाती हैं।” लेकिन सवाल उठता है कि अगर सब कुछ नीति अनुसार है, तो फिर ऐसी विसंगति क्यों बनी हुई है?
ग्रामीणों का कहना है कि जब तक तबादला प्रक्रिया पूरी तरह ऑनलाइन और पारदर्शी नहीं होगी, तब तक यह राजनीति और सिफारिश का खेल चलता रहेगा।
समाधान की दिशा में क्या होना चाहिए
समस्या का स्थायी समाधान तभी संभव है जब सरकार और विभाग ईमानदारी से कार्रवाई करें—
1. छात्र संख्या के आधार पर शिक्षकों का समान वितरण किया जाए।
2. एक ही स्कूल में 5 वर्ष से अधिक समय से डटे शिक्षकों को अनिवार्य रूप से बदला जाए।
3. तबादला प्रक्रिया को पूरी तरह डिजिटल और पारदर्शी बनाया जाए।
4. दुर्गम क्षेत्रों में वर्षों से सेवा दे रहे शिक्षकों को प्राथमिकता के आधार पर बेहतर स्थान दिए जाएं।
5. निरीक्षण और जवाबदेही की व्यवस्था को सख्त किया जाए।
निष्कर्ष
आनी शिक्षा खण्ड का यह हाल हिमाचल की शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त उस बीमारी की पहचान है, जो राजनीति, सिफारिश और अफसरशाही से उपजी है।
यह स्थिति न सिर्फ बच्चों के भविष्य पर भारी पड़ रही है, बल्कि उन ईमानदार शिक्षकों के मनोबल को भी तोड़ रही है जो कठिन इलाकों में समर्पण से काम कर रहे हैं।
अगर विभाग ने अब भी संज्ञान नहीं लिया, तो आने वाले वर्षों में सरकारी स्कूलों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।
अब सवाल यह नहीं है कि कितने शिक्षक कहां तैनात हैं, बल्कि यह है कि क्या विभाग में बच्चों की पढ़ाई से ज्यादा महत्वपूर्ण “राजनीतिक पैठ” बन चुकी है?
जब तक इस सोच को नहीं बदला जाएगा, तब तक हिमाचल की "शिक्षा की रीढ़" राजनीति के बोझ तले दबती ही रहेगी।
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