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निरमण्ड में "राच की द्याऊढ़ी" में होगा देव दानव संघर्ष का मंचन,ऋग्वैदिक काल की रस्मों का होगा निर्वहन।

 


✍️ डी०पी०रावत,सम्पादक,

अखण्ड भारत दर्पण(ABD) न्यूज़।

20 नवम्बर,निरमण्ड।


हिमाचल प्रदेश के ज़िला कुल्लू के बाह्य सिराज क्षेत्र के तहत उप मण्डल मुख्यालय निरमण्ड कस्बे के अन्तर्गत दशनामी अखाड़े में बूढ़ी दीवाली मेला मार्गशीर्ष माह की अमावस्या को पूरी रात मनाया जाएगा है। जिसमें देव दानव संघर्ष का मंचन और ऋग्वैदिक काल की रस्मों का निर्वहन होगा।

इस परम्परा में ऋग्वैदिक काल की घटना देव राज इन्द्र और वृतासुर के मध्य अग्नि के लिए संघर्ष का मंचन होगा। जिसमें परम्परा के अनुसार देव राज इन्द्र की सेना की भूमिका क्रमशः "गड़िये" अर्थात क्षत्रियों और असुरों की स्थानीय निम्न जाति के लोगों द्वारा निभाई जाएगी।

इसके बारे में कई लोकमान्यताएं और जनश्रुतियां हैं - 

पहली लोक मान्यता है कि कश्यप ऋषि की पहली पत्नी अदिति(देव कन्या) के पुत्र देव राज इन्द्र का अग्नि पर अधिकार था जबकि उनकी दूसरी पत्नी दनू (असुर कन्या) के पुत्र वृत्र का जल पर। वृत्र अग्नि पर कब्ज़ा करना चाहता था। इसलिए इन्द्र और वृत्र के मध्य अग्नि को लेकर संघर्ष हुआ था।

दूसरी लोकमान्यता महाभारत में वर्णित कौरवों व पांडवों के संघर्ष को बयां करती है।

तीसरी मान्यता रामायण में घटित लंका दहन पर प्रकाश डालती है।

चौथी लोकमान्यता वामनावतार में भगवान विष्णु द्वारा दानव राज बलि के सौवें यज्ञ में दान में तीन पग भूमि में पूरी पृथ्वी नापने के बारे में है।

पांचवीं लोकमान्यता महाभारत युद्ध में दिन को मारे गए योद्धाओं के रात को दाहसंस्कार करने के बारे में है। इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि दशनामी अखाड़े में अग्निपुंज प्रज्वलित करने से पूर्व पिण्ड दान किया जाता है।


सनद रहे कि प्राचीन काल से इन रस्मों का निर्वहन जाति आधारित था।

प्राप्त जानकारी के अनुसार कालान्तर में इन परम्पराओं में काफ़ी अन्तर आया है। अब निम्न वर्ग के लोग जातीय असमानता,भेदभाव,शिक्षा और आर्थिक स्तर में वृद्धि होने के कारण इन परम्पराओं को निभाने से किनारा करते हैं।

अब इन रीति रिवाज़ की भूमिका निर्वहन में सिर्फ़ गिने चुने अशिक्षित और निर्धन व्यक्ति होते हैं।

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